Tuesday, November 18, 2014

रकीब की क़ुर्बानी

बावरा दिल फिर खोजन निकला
ऐ इश्क़-ए-मशाल  पर पिघला

याद आती थी उनकी बहुत
इतनी कि पार कर गए सरहद

सोचा न देखा न सुना कुछ
आँखें खोल के पिया सचमुच

निगाहों का इशारा न समझा
न जाना वैरी न मित्र या साझा

जुस्तुजू जुस्तुजू रही दीवानगी
न इल्म रहा कब कर बैठे हम बंदगी

वोह आयतें वोह सूरा और कलाम
सभी हैं लगते दोस्त-ए - कलम

यार का याराना और बेरुखी भी देखी
ज़ाहिर और छुप छुप के सभी लिखी

एक और एक ग्यारह होते या दो
अब लेना नहीं यारों बस मकसद है दो

अल्लाह -ए - जतन किये  जाते हैं
तुम पे ये क़ुर्बानी दिए जाते हैं





No comments:

Post a Comment